अब पैंन्ट में जेब ही नहीं बनवानी
जो पैंन्ट से मैने पर्स निकाला
हल्की हुई जेब ने सोचा
बाहर निकलूं
हवा ही खालूँ
साथी ढूँढूँ
दुःख सुख गा लूँ
पहले तो कुछ लोग मिले
भरी जेबों के पीछे भागते
औरों की जेबों को ताकते
साथी की जेबों को काटते
ज़रा दूर सकुचाई एक जेब मिली
चंद सिक्के ही पास बचे थे
इसलिए बहुत घबराई थी
फिर एक खाली जेब मिली
जिसने मुंह भी नहीं दिखाई थी
देख ज़माने की चतुराई
जेब बेचारी बड़ी घबराई
ईर्ष्या, लालच और बेईमानीसुन कर जेब से यही कहानी
मैंने भी है मन में ठानी
अब पैंन्ट में जेब ही नहीं बनवानी
["अब पैंन्ट में जेब ही नहीं बनवानी" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali ]
[Picture Credit, Max Ernst, Untitled, Dadaism]
साँवले होठों वाली: सोचा, कोई गीत लिखूँ
आशा तकिये में छिप रोती
ढूंढ रहे सब सीप में मोती
इस दौर भाग में
एक नवल प्रीत लिखूँ
सोचा, कोई गीत लिखूँ
होड़ है, शोर है
जोड़ है, तोड़ है
गुणा-भाग में
खोया एक राग लिखूँ
मुस्काता एक बाग लिखूँ
पर कलम बेचारा, क्या बतलाता
जो भी लिखता, व्यर्थ ही पाता
धुएें के बाजार में
अनसुनी एक गुहार लिखूँ
कैसे कहो फूहार लिखूँ
माटी है, ये बोल नहीं
हाँ, बातों का मोल नहीं
ऐसे कोलाहल में
सरहद है बेहाल लिखूँ
या विधवा का श्रृंगार लिखूँ
सोचा था एक ख्वाब लिखूँ
साकी और शराब लिखूँ
क्या हार लिखूँ , क्या जीत लिखूँ
उचित नहीं मैं गीत लिखूँ
उचित नहीं मैं गीत लिखूँ
["सोचा, कोई गीत लिखूँ" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali ]
Picture Credits: Self Portrait, Oscar Kokoscha, Oil with hand
साँवले होठों वाली: ऐसे रब को क्या रोना है
जाने कहाँ चला आया
सिरहाने हूँ सन्नाटे के
कल तो खेला गाया
चोगा पहने, चौबारे में
माँ ने रोट पकाया था
मैने पेट भर खाया था
दुआ भी कर सोया था
थोड़े खिलोने थे,
पर ना रोया था ...
ये कहर फिर क्यूँ आया ?
क्यूँ ऊपर वाला गुस्साया ?
जन्नत से बारुदें बरसीं
जीने को फिर ज़ानें तरसी
अब हर लम्हा डरता हूँ
घुट घुट कर मरता हूँ
अपनों को तरसा हूँ
अब हर लम्हा डरता हूँ
कहती थी दादी मुझसे
अच्छे को अच्छा होता
रब को प्यारा बच्चा होता
फिर क्यूँ मुझको चोटें आई ?
सुना नहीं जो आवाज लगाई
दादी की भी बात न मानी
बर्बादी करने की ठानी
ज़िसके रहते भी बस खोना है
ऐसे रब को क्या रोना है
ज़िसके रहते भी बस खोना है
ऐसे रब को क्या रोना है
["ऐसे रब को क्या रोना है " लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali ]
Picture Credits: War, Marc Chagall, 1966, Symbolic Surrealism
साँवले होठों वाली: झोला
सुबह जागी, हड़बड़ाती,
हर रोज की तरह
जाने की जल्दी
बस पकड़ने की जल्दी
अधूरी नींद का शोर
सपनो को पूरा करने की होड़.
हर रोज सा दिन था
न नया, न पुराना .
भागती मैं,
जो बैठी बस में
पीछे सीट पर सिर टिका
खिड़की से लगी कुछ ताकने
लगी सोचने-
बीते रात की बातें
जिन पर गौर नहीं फरमाया
ज़रूरी थी
पर कल वक़्त हाथ नहीं आया
हेड फ़ोन मेरे कानो में
पुराने गाने बज रहे रास्ते के पेड़
कहीं पीछे भाग रहे
बादल उपर से
मुझे ताक रहे
रुकी बस,
मैं जागी
सड़क रुका था,
जाम लगा था
सुना कोई हादसा हुआ था
खून के छींटे भी थे
लोगों ने बताया-
कोई मर गया...
एक छोटा सा स्कूटर
बड़े ट्रक की टक्कर से
फिसल गया
जो उचक के देखा
तो पास में फैली थी सब्ज़ी
और पड़ा था
एक झोला ...
घर पर कुछ अच्छा बनना था
या हर रोज वो जाता था
इसी रास्ते
पुराने से झोले में
ताज़ी सब्ज़ी लिए
यकायक उसका आँगन दिखा
लाल साड़ी वाली बीबी,
कूदता फांदता बच्चा,
...और ऐनक वाली माँ
भूली सी कोई याद
दस्तक देती रही
मैं भी अनसुना कर
बाहर तकती रही
रुकी बस चलने लगी
सब्जी का झोला छूटता रहा
मुझे वो दूर तक देखता रहा
चुप चाप पड़ा पुकारता रहा
तभी टूटी चुप्पी
ज़िंदगी कहाँ रुकती है
रास्ते नहीं रुकते
किसी ने जो यह कहा
मैंने हामी भरी
सिर हिलाया और मुस्कुरा दिया
अगली सुबह;
हर रोज सा दिन था
न नया न पुराना...
फिर जल्दी में बस पकड़ी
वही खिड़की
वही भागते पेड़
बादल थोड़े अलग थे
जो उपर से ताकते थे
ड्राइवर ने ब्रेक लगाई थी
सामने दुल्हन की विदाई थी
कल जो लाल रंग रास्ते पे बिखरा था
आज दुल्हन के गालों पे बिखर गया
बारात संग,
लोग झूमते रहे
मैं फिर मुस्काई
कल वाली बात याद आयी
'ज़िंदगी कहाँ रुकती है
रास्ता नहीं रुकता'
मैने वो झोला ढूँढा,
जो कल मुझे था बुला रहा
वो मगर मिला नहीं
हेडफोन में गाने बजते रहे
बस यूँ ही चलती रही
...ज़िन्दगी भी
["झोला" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali ]
Picture Credits: Virginia, Frida Kahlo, Abstract, Primitivism
साँवले होठों वाली: मलंग तू, फ़कीर तू
निर्मोही से प्रीत लगा
मोह फिर क्यूँ बो रहा?
मलंग तू, फ़कीर तू
आज फिर क्यूँ रो रहा?
फिर बोझ हृदय पर
क्यूँ भारी सा रखा है ?
निज भावनाओ का चाप
बन गीत धरा पर सजा है
उन्मुक्त उड़ती उत्कंठा
मन कांपता थड़ थड़
अपनी खुशी के सामने
ढाल बन क्यूँ खड़ा है?
क्या कहें रीत जग की
ऐसी ही चली
हाथ में बन लकीरें
नियती कुछ कह रही
तू कैसे लकीरों में
फिर फंसा पड़ा है?
कैसे जोड़ेगा मन को
जब टुकड़ों में स्वयं बंटा है ?
जो है तुम्हारा
साथ देता ही रहा है
जो है नही उसे,
बांधने में क्यों पड़ा है ?
गगन धरा का मेल
क्षितिज पे होता है मगर
उस क्षितिज के छल में
कहाँ तू उलझ रहा है?
तिनको का घरोंदा था
मेघ से गीला ही होगा
नियति ने जो रच रखा है
वो तुझको मिला ही होगा
एक मौन स्वीकृति दे डालो
जो जैसा है उसे रहने दो
जो राख हुआ है आखिर
एक बार जला ही होगा ...
निज नीर से प्यास बुझे
मेघों की राह कौन तके?
स्वयं प्रेम हो, स्वयं सत्य हो
उसे पूर्ण फिर कौन करे ?
निर्मोही से प्रीत लगा
मोह फिर क्यूँ बो रहा?
मलंग तू, फ़कीर तू
आज फिर क्यूँ रो रहा?
["मलंग तू, फ़कीर तू" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali]
Picture credits: The Mask, by Frida Kahlo style - Oil on Masonite, Primitivism, Abstract,
reference : http://www.fridakahlofans.com/c0510.html
reference : http://www.fridakahlofans.com/c0510.html
साँवले होठों वाली: टूटी लाठी
हाथो की नसें
सिकुड चुकी
बस चमड़े का कोई जाल बिछा है
एक टूटी लाठी के सहारे
असहाय सा पिता खड़ा है
हारा मन, काँपती काया, संगिनी मात्र …वह टूटी लाठी
ढलते दिन, जीवन संध्या का सत्य मात्र …वह टूटी लाठी
बस चमड़े का कोई जाल बिछा है
एक टूटी लाठी के सहारे
असहाय सा पिता खड़ा है
हारा मन, काँपती काया, संगिनी मात्र …वह टूटी लाठी
ढलते दिन, जीवन संध्या का सत्य मात्र …वह टूटी लाठी
बड़े हुए, तुम
व्यस्त हुए
जीवन का कारोबार बढ़ाया
घर के बड़े कमरे से
पिता का बिस्तर बाहर पहुँचाया
पर सिरहाने की टूटी लाठी ने
बेटे का कर्तव्य निभाया
वेदना-संवेदना, अश्रु-अवसाद …वह टूटी लाठी
जीवन भर की हसी उड़ाती, अट्टहास …वह टूटी लाठी
जीवन का कारोबार बढ़ाया
घर के बड़े कमरे से
पिता का बिस्तर बाहर पहुँचाया
पर सिरहाने की टूटी लाठी ने
बेटे का कर्तव्य निभाया
वेदना-संवेदना, अश्रु-अवसाद …वह टूटी लाठी
जीवन भर की हसी उड़ाती, अट्टहास …वह टूटी लाठी
भूली यादें, बीती बातें
पिछले रस्तों पे मन दौड़ता
आँखो से गिरते आँसू बस बहते जाते
उन्हे नही अब कोई रोकता, कोई पोंछता
अपने ऐनक के कोने से, वह पिता अश्रु पोंछता
मन ही मन “कहाँ हुई भूल?” यही सोचता
आँगन में एकांत खड़ी …वह टूटी लाठी
खोने-पाने के फेर पड़ी …वह टूटी लाठी
पिछले रस्तों पे मन दौड़ता
आँखो से गिरते आँसू बस बहते जाते
उन्हे नही अब कोई रोकता, कोई पोंछता
अपने ऐनक के कोने से, वह पिता अश्रु पोंछता
मन ही मन “कहाँ हुई भूल?” यही सोचता
आँगन में एकांत खड़ी …वह टूटी लाठी
खोने-पाने के फेर पड़ी …वह टूटी लाठी
सकुचाया सा
वही पिता, फिर
भी हाथ उठाता
तुमको दो आशीष सुना, वह गदगद सा हो जाता
जीवन ने जब करवट बदला, उसके जाने की बारी आई
तुमने वाह क्या रीत निभाई
पूरे विधि-पूर्ण वेदना
के संग की उसकी अंतिम विदाई
अब हर घर होती है …वह टूटी लाठी
स्वयं को कोसती, कहती है …वह टूटी लाठी
तुमको दो आशीष सुना, वह गदगद सा हो जाता
जीवन ने जब करवट बदला, उसके जाने की बारी आई
तुमने वाह क्या रीत निभाई
पूरे विधि-पूर्ण वेदना
के संग की उसकी अंतिम विदाई
अब हर घर होती है …वह टूटी लाठी
स्वयं को कोसती, कहती है …वह टूटी लाठी
“जिसने चलना तुमको सिखलाया
घोड़ा बन कर जी बहलाया
रंग रूप धूमिल हो जाएँगे
उस पराव पे माँ-बाप समझ आएँगे
फेंको मुझे, अस्तित्व मिटाओ
माता पिता की लाठी स्वयं बन जाओ”
["टूटी लाठी" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali]
साँवले होठों वाली: वो अबला है
हाँ सच ही तो है…वो अबला है
छलक उठती हैं आँखें
उसकी, तुम्हारी वेदना देख के
फैला लेती है आँचल
अपना, तुम्हारी संवेदना सुन के
नही खड़ी रह सकती,
तुम्हारे शारीरिक बल के सामने
रो उठती है वो, तुम्हारी
हर कटु बात के आगे
उसकी यही विवशता है,
तुम्हे स्नेह वो करती है
पीछे पीछे चल कर के,
तुमको पुरुष बनती है
कभी मातृ धर्म, कभी
पत्नी धर्म निभाती है
तुम्हे जीवन देने हेतु,
अपना लहू पिलाती है
कभी अर्धांगनी
बन के, तन मन न्योछावर करती है
हार के सबकुछ अपना भी वह फूले नही समाती है
द्रौपदी कह उसका चीर
हरण कर लेते हो
अपने को पुरुष बता,
व्यर्थ ही खुश हो लेते हो
सर्वस्व समर्पित करने
पर भी, जब संतुष्ट नही तुम होते हो
लेने लग जाते हो अग्नि
परीक्षा, जब हवा देनी हो पुरुषार्थ को
सच ही कहते हो तुम
वो अबला है
सच ही कहते हो तुम
वो अबला है
बस बहुत हुआ, बने रहने
दो उसे अबला
मत लो उसके मौन की
परीक्षा
अब तुम सीमा लाँघ रहे
हो
अपने विनाश समीप स्वयं
जा रहे हो
वो शक्ति है, वो ज्वाला
है
वो जननी है, वो माता
है
उसमे छमता है सर्वनाश
कर देने की, इस बात को कभी न वो बल देगी
उसे आदत है जीवन देने
की, वो क्षमा तुम्हे भी कर देगी
तुम्हारे पश्चाताप
की एक वाणी, उसे फिर अबला बना देगी
वह ममता से विवश हो,
अपना आँचल फैला देगी
उसका सम्मान करो,
उस बेटी पे अभिमान
करो
मत होने दो उसका चीर
हरण,
मत करो उसका प्राण
हनन
उस शक्ति को बने रहने
दो अबला
तुम पुरुषार्थ दिखाओ,
वो उसमे खुश हो जाती है
हाँ सच ही कहते हो
तुम, वो अबला है वो नारी है
["वो अबला है" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की पहली कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali]