जो पैंन्ट से मैने पर्स निकाला
हल्की हुई जेब ने सोचा
बाहर निकलूं
हवा ही खालूँ
साथी ढूँढूँ
दुःख सुख गा लूँ
पहले तो कुछ लोग मिले
भरी जेबों के पीछे भागते
औरों की जेबों को ताकते
साथी की जेबों को काटते
ज़रा दूर सकुचाई एक जेब मिली
चंद सिक्के ही पास बचे थे
इसलिए बहुत घबराई थी
फिर एक खाली जेब मिली
जिसने मुंह भी नहीं दिखाई थी
देख ज़माने की चतुराई
जेब बेचारी बड़ी घबराई
ईर्ष्या, लालच और बेईमानीसुन कर जेब से यही कहानी
मैंने भी है मन में ठानी
अब पैंन्ट में जेब ही नहीं बनवानी
["अब पैंन्ट में जेब ही नहीं बनवानी" लामया द्वारा लिखी "साँवले होठों वाली" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें saanwale hothon wali ]
[Picture Credit, Max Ernst, Untitled, Dadaism]
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