हम सभी को अपने शहीदों पर गर्व है , पर अगर मैं कहूँ के शहीद हम भारतीयों पर शर्म महसूस करते हैं तो ...


 

९:०७ सुबह,­

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आँख खुली तो देखा कि घर के पास के परेड ग्राउंड से देशभक्ति के गीतों की आवाज़ आ रही थीं | स्कूली बच्चों की कई टोलियाँ हाथ में बेनर्स ले–लेकर दूरदर्शन पर इन्टरवल मे दिखाये जाने वाले गीत “हम होंगे कामयाब" को टीचर की सिखायी हुई मशीनी तर्ज पर गाते हुए पास के स्कूल से निकल रही थी | फ़ेरी वाले भी पास ही के ग्राउंड की ओर जा रहे थे |

उन्नींदे दिमाग को कुछ वक्त लगा याद दिलाने में आज तो 15 अगस्त है... दिन है ये एक्स्ट्रा छुट्टी का... दोस्तों के साथ घूमने का... ड्राई-डे की मार से बचने को पिछले कल खरीदी गयी बीयर पीने का...कनौट प्लेस पर टोटे ताकने का... मौज करने का...

मैं तैयार होकर घर से बाहर निकला तो मैने देखा कि सडक के एक किनारे पर कुछ लोगों का एक झुण्ड खड़ा था , भाई झुण्ड क्या था जैसे कोई नौटंकी वाले का ग्रुप लग रहा था , लेकिन अचंभे की बात थी के उनके ऊपर किसी का ध्यान नहीं था | फ़िर मुझे क्या पड़ी है उन पर ध्यान देने की | मैं आगे बढ़ा लेकिन तभी उस भीड़ में से एक आदमी ने देखा और फ़िर सभी एक –एक करके मेरी ओर घूरने लगे|

पता नहीं क्या था उन आँखों में , जो मुझे रोक रही थी , वो नज़रें देख नहीं रही थी जैसे पैरों से बेड़ी बनकर लिपट गई थी चुम्बक की तरह खींच रही थी | मैं उन नज़रों में बंधा उनके पास पहुँचा तो देखा कि बीच में एक औरत जिसके हाथ पैर बंधे हुए थे, सड़क पर भगवा साड़ी में लिपटी हुई पड़ी थी... उसके चारों ओर खून से सने हुए मांस के लीथड़े थे... वहीं बगल में एक लोहे की एक जंग लगी हुई रक्तरंजित रौड पड़ी हुई थी| और उसकी आँखों में आँसू .. आँसू ? आँसू नहीं ,ये तो लहू था | हाँ लहू ही था जो उन आँखों से लगतार बह रहा था | मेरे अन्दर एक सर्द लहर दौड़ गयी....

मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे| बड़ी देर तक मैं ऐसे ही खड़ा रहा | कुछ देर बाद मेरे मुँह से बड़ी मुश्किल से शब्द निकले – “आप लोग क...... कौन हैं ?”

मेरी बात को सुनकर एक १३-१४ साल का लड़का उस भीड़ से निकल कर आया उसने बहुत पुराने कपड़े पहन रखे थे , उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकले | लेकिन उसकी आँखें मुझे भेदती हुई कह रही थी , “ हमें पता था तुम हमें नहीं पहचानोगे |”

“ जी......जी आप !”

“ मैं! मैं स्कनदगुप्त हूँ |”

“स्कन्द ... क्या ?” मैने दोबारा पूछा |

“स्कन्दगुप्त | चक्रवर्ती सम्रा्ट चंद्रगुप्त द्वितीय का पौत्र और ४५५ ई. से ४६७ ई. के बीच भारत का राजा |”

“जी ... जी ...” मेरा मुँह जैसे सूखा जा रहा था |

“हाँ यही उम्र थी मेरी जब मैने हिन्दकुश पर्वत की बर्फ़ से भी ठंडी पहाड़ियों में जाकर हूणों से टक्कर ली और उन्हें मार भगाया | उन हूणों को जिन्होने चीन से लेकर यूरोप तक हर जगह को अपनी क्रूरता से थरथराकर रौंद डाला था |

जानते हो किसलिये ? इसलिये कि दुश्मन का खून शराब में मिलाकर पीने वाले हत्यारे मेरी माँ सरीखी इस धरती पर अपने गन्दे कदम न रख पायें , ताकि तुम जैसे कई भारतवासी उनकी क्रूर तलवारों की भेंट न चढ़ जायें | और तुम मुझे नहीं पहचान रहे ! फ़िर तो ज़मीन पर पड़ी इस देवी को नहीं पहचानते होगे ! है न !” और उसकी आँखों से लहू की बूँदें टपकने लगी उस लड़के की बात सुनकर भूमि पर पड़ी उस स्त्री को देखा , देखा और .... फ़िर से देखा |

तभी उस भीड़ में से एक दूसरा आदमी प्रकट हुआ| उसकि लम्बाई कुछ सात फ़ुट थी और उसकी गोद में १२ साल की एक लड़की की लाश थी | इस आदमी की मूँछें घनी और रोबीली थी | रोबीले व्यक्तित्व को देखकर पूछा – “आप कौन हैं ?” मुझे उसका चेहरा बहुत पहचाना लग रहा था , जैसे कहीं देखा हुआ था , पर कहाँ ? शायद इतिहास की किताबों में...?

“मै हूं महाराणा प्रताप | चित्तौड़ का शासक , मैने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक अपनी मातृभूमि को अकबर जैसे विदेशी शासकों से मुक्त नहीं करा लेता तब तक कोई त्योहार नहीं मनाऊँगा , अच्छे कपड़े नहीं पहनूँगा, भूमि पर ही सोऊँगा और ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा| वही अभागा राणा प्रताप हूँ मैं जिसने अपने जीवन के ५० से ज्यादा वर्ष कष्ट में व्यतीत किये , जिसने भूख से मरते हुए देखा अपनी इस फ़ूल सी कोमल बेटी को , किसलिये? ताकि हम आज़ाद रहें , हमारा स्वाभिमान बना रहे, हमें किसी विदेशी के आगे अपने सिर न झुकाने पड़े | ये सब किसके लिये ? तुम लोग ही अपनी इस महान धरती का शासन एक विदेशियों को सौंपना चाहते हो | हे ईश्वर ! क्या होगा हमारी इस मातृभूमि का ?” और उस तेज़पुंज की धधकती ज्वला सी आँखों से भी लहू टपकने लगा | इस दृश्य को देखकर जैसे मेरा दिल ही सहम गया था , वो ..... लड़की की लाश जैसे दिमाग से नहीं हट रही थी |

“ मैं... मैं ...” मैने कुछ कहना चहा तभी भीड़ के बीच से एक और नवयुवक निकला | उसने सूट- पैंट और हैट पहने हुआ और चेहरे पर जानी पहचानी सी मूँछें थी | ये तो भगत सिंह थे! शहीद भगत सिंह | भारत माँ के लिये जान न्योछवर कर देने वाले अमर शहीद सरदार भगत सिंह...लेकिन उनके गले पर एक नीला घेरा था, जैसे कि फ़ाँसी पर चढ़ाये गये लोगों के गले पर होता है और पूरा शरीर खून से भीगा हुआ था , और ... और घावों में से मांस बाहर झांक रहा था |

“आप भगत सिंह है ना !” मैने पूछा
“हाँ मैं ही भगत सिंह हूँ | वही भगत सिंह जिसने २३ साल की उम्र में फ़ंदे को चूमकर उसे गले में स्वीकार किया था , अपनी माँ सरीखी इस महान भूमि को विदेशी आताताइयों से मुक्त कराने के लिये| उस भूमि को मुक्त कराने के लिये जिसे मुझ जैसे कई शहीदों ने अपने लहू से सींचा है , जिससे उपजा अन्न मैने खाया है और जिस भूमि पर पैदा होने पर भगवान ने भी गर्व महसूस किया है |”

“लेकिन आपके शरीर पर ये घाव?” मैने पूछा|

“ये घाव!” भगत सिंह ने अपने घावों को देखा और उनके चेहरे पर एक व्यंग्य की मुस्कान आ गयी | 
“ये वो घाव हैं जो अंग्रेजों ने मेरी लाश के टुकड़े करते हुए दिये थे ताकि मेरी लाश को देखकर वो जागृति न आ जाये जिससे उनकी रूह काँपती थी | लेकिन उन्हें शायद पता नहीं था हम भारतीय बड़े अजीब हैं| हमें जगाना नामुमकिन है, यहाँ कभी जागृति आ ही नहीं सकती|”

जानते हो मेरे ये घाव क्यों नहीं भरते ? क्योंकि हर दिन इनके भरने से पहले ही मैं फ़िर से घायल कर दिया जाता हूँ जब मैं देखता हूँ कि एक दलित नेत्री पंडित जी (चंद्रशेखर आज़ाद) को सरेआम “डाकू” कहती है | क्यों ? इसलिये क्योंकि वे सवर्ण थे | ऐसे लोग हमारे नेता है जो शहीदों को भी सवर्ण-दलित , हिन्दु-मुसलमान और जातीय-विजातीय में बाँट देना चाहते हैं , थोड़े से वोटों के लिये , और हम उन्हे सुनने जाते हैं , उन्हे अपना मुक्तिदाता मानते हैं | मेरे घाव फ़िर से हरे हो जाते हैं जब मैं देखता हूँ कि एक नेता जिसके अपने क्षेत्र में आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का भूतपूर्व सिपाही भूख से मर जाता है ,और बाद में उसी नेता की पार्टी के कार्यकर्ता उसे भगवान घोषित कर १७००० लोगों के सामने, भरे मंच पर आरतियाँ उतारते हैं|”

“शर्म आती है मुझे जब-जब मैं देखता हूँ कि मैने किस निम्नकोटि के नाकारा और बुज़दिल लोगों के लिये अपनी जान दे दी|” बात खत्म होते –होते भगत सिंह का गला भर आया और उनके नेत्रों से भी ताज़ा लहू टपकने लगा |

“और मैं अकेला नहीं हूँ , जो अपनी कुर्बानी पर शर्म–सार हूं | हर वो शहीद जिसने भारतीयता की आन बनाये रखने के लिये अपनी जान दी है , आज भी शर्मसार है भरतीयों के नाकारापन पर | देखना चाहोगे उन लोगों को ?

आओ देखो ! देखो !”

भगत सिंह मुझे अपने साथ , शहीदों की उस भीड़ से निकालते हुए ले गये और मुझे इशारा किया सामने की ओर ........ |

मैने देखा ....... | मैने देखा कि मेरी आँखों के आगे लाखों , नहीं-नहीं करोड़ों- करोड़ लोग थे| सभी के चेहरे पर यातना थी , दर्द था और एक पीड़ा थी | पीड़ा अपने कुर्बनियों को बेकार जाते देखने की , पीड़ा पूरे देश की अकर्मण्यता की ,भारतीयों की नपुंसकता की |

लहू में सने वे करोड़ों लोग भाग रहे थे | एक कोने में जलियाँवाला बाग था , एक ओर फ़ाँसियों पर लटकते हुए करोड़ों शहीद , एक तरफ़ मुगल क्रूरता के शिकार मासूम लोग , कालापानी की जेल में जेलर बारी के कोड़ों से यातना पाते शहीद , अंग्रेज़ों की लाठियों की बलि चढ़ते हुए लोग , लोग मरते हुए .... लोग लहू के सागर में नहाते हुए | उनको मारने वाले लोग और कोई नहीं वही चेहरे थे जिसे मैं रोज़ की जिंदगी में देखता हूँ | कुछ लोग नेताओं के भाषण सुनकर आते थे और जलियाँवाला बाग के शहीदों को फ़िर से मार रहे थे , कुछ विदेशियों से पैसे लेकर आते थे और सत्याग्रहियों की रैलियों पर लाठियाँ चला रहे थे और तब उन लोगों के चेहरे जनरल डायर के चेहरे जैसे बन जाते थे| वे शहीदों को फ़िर से ज़िंदा कर रहे थे और फ़िर से मार रहे थे , और चारों ओर लहू ही लहू था , शहीदों का पवित्र लहू|

मैं डरकर भागने लगा और भागते – भागते फिर से शहीदों की उस भीड़ में पहुँचा | भगत सिंह ने मुझे पकड़ा और पूछा ! “जानते हो, लहू के आँसू रोती ये औरत कौन है ?”

जवाब मुझे पता था | वे भारत माता थीं | हाँ भारत माता ....भारत माता ! भारत माता !
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मेरी आँखे खुली तो मैने देखा तो घड़ी सुबह के सात बजा रही थी | तो .... तो क्या ये एक सपना था ? पर नहीं इतना जीवंत अनुभव सपना नहीं था| वो तो सच्चाई थी , हाँ सच्चाई ही तो थी|

अपनी उहापोह में उलझे हुए अपने घर की चौखट से बाहर नज़र डाली और देखा आज सचमुच १५ अगस्त था| मैने वहाँ पड़ा हुआ अखबार उठाया और सड़क पर एक नज़र डाली|

मैने देखा बच्चों की रैली के पीछे १३-१४ साल का एक बच्चा खड़ा हुआ , स्कूली बच्चों को हसरत भरी निगाह से देख रहा था | इस बच्चे को मैं जानता था , ये सलीम था जो पड़ोस की एक साईकिल की दुकान पर मजदूरी कर अपना पेट भरता है | उसकी शक्ल किसी से मिल रही थी | हाँ मिल तो रही थी पर किससे? हाँ शायद सपने में देखे स्कंदगुप्त के चेहरे से |

पास ही में एक फेरीवाला खड़ा था जिसके साथ में उसकी १२ साल की बच्ची थी | उस रिक्शे वाले का भूख और गरीबी से मुर्झाया चेहरा मुझे राणा प्रताप के चेहरे की याद दिला रहा था|

कुछ ही दूर पर मुझे दलजीत दिखाई दिया , जो नौकरी की चाह में पिछले ३ साल से जाने कहाँ- कहाँ के चक्कर खा रहा था | उसके चेहरे पर जमी हुई पैनी मूँछे मुझे किसी शहीद के चेहरे की यादगार सी लगी| पर कौन शहीद?

मैने चौखट पर पड़े अखबार को उठाया और पढने लगा | तीसरे पन्ने पर ‘निर्भया’ की लीक्ड तस्वीर थी... और निर्भया का वो चेहरा सपने की भारत माता जैसा ही था। मैने अखबार बंद कर दिया और अपने दिमाग में लहराते हुए प्रश्न से जूझने लगा “क्या यही आजादी है !”

नहीं ये आजादी नहीं हो सकती ये सच्ची आज़ादी नहीं है | ये नहीं है बापू के प्रयासों की आज़ादी, नहीं है ये भगत सिंह की कुर्बानी की आज़ादी|

अगर हमें सही मायनों में आजादी,चाहिये तो हमें खुद को बदलना होगा और नेताओं को कोसना बंद करना होगा| नेता कहीं बाहर से नहीं आता, वो भी हमारे बीच का इंसान है... नीच, स्वार्थी, चरित्रहीन और डरपोक |

जिन नरपिशाचों ने निर्भया की अस्मिता को तार-तार किया था, वे नेता नहीं थे...
कचहरी का रिश्वतखोर बाबू नेता नहीं है...
लड़कियों को रोज सरेआम कामुक निगाहों से निगलने वाला युवक नेता नहीं है...
302 के केसों में दोनों पक्षों से कमीशन खाने वाला पुलिसवाला है, नेता नहीं...
 
अगर हमें देश को बदलना है तो नेता को गाली देने की नहीं, अंतरतम में झाँकने की की जरूरत है| मेरा विश्वास मानिए... देश पर मर मिटने वाला शहीद और निर्भया जैसी लड़कियों को प्रताड़ित करने वाला पशु, दोनों ही वहाँ मिलेंगे...
किसको दुनिया के सामने आप लाते हैं, इसके निर्णायक सिर्फ आप हैं, कोई नेता नहीं, कोई सरकार नहीं, कोई अधिकारी नहीं



Image: 'Figures in Sepia' by Gurudev Rabindranath Thakur

[ Stories of a Seeker are a series of posts by an author who wants to be known as "Seeker". From what we know, Seeker is a genuine and strong individual, who seeks answers to the conundrum of ethics and existence and prefers anonymity and unhindered solitude.]
 


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