मैं कायनात में ,सय्यारों में भटकता था
धुएँ में धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कट कर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ
लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले
… गुलज़ार
"अगर ये कविता तुमने लिखी होती तो मैं तुमसे प्यार कर बैठती" लड़की ने इठलाते हुए कहा ।
और हमेशा की तरह "गुलज़ार" की कविता को अपनी बपौती समझते हुए लड़के ने कहा
"तो क्या हुआ, नज़्म गुलज़ार साब की है पर तुम्हे तो मैंने सुनाया है। तुम्हारा तार्रुफ़ इस नज़्म से मैंने करवाया है। "
"ये नज़्म नज़्म क्या करते रहते हो। सीधे कविता नहीं कह सकते , कहानियों को अफ़साना कहते हो।"
"ये नज़्म नज़्म क्या करते रहते हो। सीधे कविता नहीं कह सकते , कहानियों को अफ़साना कहते हो।"
लड़की जब तर्क में नहीं जीत पाती थी तो ऐसा ही कुछ कहके लड़के पे चढ़ बैठती थी।
"कविता, मैं तो किसी कविता को नहीं जानता।" लड़के ने हँसते हुए बात घूमाने की कोशिश की। ऐसा अक्सर होता था। जब भी लड़की जानबूझ कर लड़के से बेवजह उलझती थी तो लड़के को बहुत मज़ा आता था और यूँ ही बातों का सिरा पकड़ के दौड़ने लगता था। वैसे कविता को नज़्म कहना और कहानी को अफ़साना उसने कब और क्यों कहना शुरू किया उसे खुद पता नहीं था।
"अच्छा ये बताओ, गुलज़ार साब की इस नज़्म को किस तरह समझा तुमने ?" लड़के ने पूछा।
ये वो लम्हे होते थे जब लड़की चहक उठती थी। उन पलों में उसके चेहरे पर गज़ब की रौनक आ जाती थी। लड़का अपलक निहारने लगता था। तब जवाब गौण हो जाया करता था।
"मुझे लगता है कि कवि प्रेम की उस पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है, जहाँ अब अपनी प्रेमिका का सानिध्य किसी तरह पाकर भी बेचैनी से नहीं छूट पायेगा। कवि को ऐसा लगता है कि अगले जन्म में अपनी प्रेमिका की कोख से जन्मे और माँ की तरह अलौकिक प्यार मिले तो शायद कहीं रूह को राहत मिले।"
"और कुछ" लड़के ने निर्विकार भाव से पूछा
"नहीं " लड़की ने आश्वस्त भाव से जवाब दिया।
लड़का अचानक से गुम हो गया। ऐसा अमूमन हो जाया करता था। लड़का कुछ पूछकर लड़की को अपलक निहारने लगता था और मुस्कुराता था। जवाब सुनकर मुस्कुराता था या लड़की को देखकर, कह पाना मुश्किल है। फिर गुम हो जाता था। लड़की को लगता था कि उसमें गुम है या फिर उसके जवाब में। वास्तव में लड़का कहाँ गुम हो जाया करता था यह उसे भी पता नहीं होता था। पर अभी वो ११४४ किलोमीटर दूर एक तपती दोपहरी के गर्म गाँव में गुम था, जहाँ उसकी माँ मिट्टी के ठंढे घर में बैठी थी।
माँ.…माँ बरसों से "माँ" जैसी दिखती है। कम रंगीन कपड़ों से माँ को मोहब्बत सी है, कम खाने से माँ को मोहब्बत सी है जैसे मोटे चश्में से माँ को मोहब्बत सी है। ओह चश्मा… मोहब्बत नहीं ज़रूरत। माँ की ज़रूरत और मोहब्बत में फर्क कर पाना मुश्किल था। माँ की ज़रूरत ही उसकी मोहब्बत बन जाती थी। इसका "वाईस - वर्सा" नहीं था।
माँ घर भर भरी रहती थी। ऐसा लगता था वो विष्णु का वामन अवतार हों जो इतना विशाल हो गया हो कि पूरा ब्रह्माण्ड भर ले। जब लड़का दोपहरी में भागता हुआ आता था तो माँ बाहर आम के पेड़ के तले उपले बनाते हुए दिखती थी। लड़का दौड़कर खाने को रसोई पहुँचता तो माँ उसे खाना दे रही होती थी। जब हाथ धोने पहुँचता तो माँ मुँह धुलाने को लोटे में पानी लेकर खड़ी होती थी। इस बीच पापा को मजदूरों के लिए ले जाने का कलेवा दे रही होती थी। माने ये की माँ हर जगह थी। लड़के ने एक बार बहुत तेज़ दौड़ लगायी आम के पेड़ से रसोई तक पर माँ फिर भी मौजूद थी। लड़के को लगा उसकी कई माँएं हैं।
लड़के ने लड़की की बात पर गौर किया। शायद पिछले जन्म में उसे अपनी माँ से ऐसा ही प्रेम हुआ होगा। इतनी ही शिद्दत से चाहा होगा, तभी इस जन्म में अपनी माँ की कोख से जन्मा। पर अगर ऐसा है तो इस जन्म में फिर से प्यार क्यों हुआ। वही बेचैनी और अधूरापन फिर से क्यों।
"क्या सोच रहे हो " लड़की ने उसकी नज़र के आगे हाथ हिलाकर पूछा।
"कुछ नहीं बाहर बहुत धू... "
"ओ हेलो … बाहर बारिश हो रही है " लड़की ने आश्चर्य से कहा।
"सच-सच बताओ क्या सोच रहे हो "
"मैं इस नज़्म बारे में सोच रहा था। जो तुमने समझा है वो बिलकुल सही है। पहली दफे मैंने भी यही समझा था। पर इसका एक और आयाम भी है। हो सकता है कवि बंटवारे के बाद नए देश में दर-दर भटका हो…अपने नाम अपनी पहचान के लिए। अंततः कहीं सुकून न पाकर चाहता हो कि अगले जन्म में रूहों का ऐसा बंटवारा न हो। जिस देश की मिट्टी में जन्मे वहीँ दफ़्न भी हो। "
लड़की की आँखें चमक उठीं। ऐसा लगा कि अभी चूम लेगी। पर कहा "वाह, तुम्हारी यही बातें मुझे अच्छी लगती हैं , एक अजीब सी सिहरन पैदा करती हैं जो शायद लोग प्यार में महसूस करते हैं। आई डोंट नो आई लव यू ऑर नॉट बट आई फील अॉल व्हाट पीपल फील इन लव " लड़की पर उसकी भावनाएं और उम्र दोनो हावी हो रही थीं।
"तुम्हें लेखक बनना चाहिए " लड़की ने उत्साह और गर्व से कहा।
"और ऐसा क्यों ?" लड़के ने अनमने ढंग से पूछा।
"अच्छा लिखते हो और समझते हो। शायद तुम्हारी साहित्य की समझ के कारण ही तुम मुझे अच्छे लगते हो।"
लड़के को समझ नही आया की खुश हो या दुःखी। अच्छा लगना पर सिर्फ साहित्यिक समझ के कारण ?
ख़ैर ऐसी उलझन सहज थी उसके लिए।
जैसे नाश्ते में वह क्या खाना चाहता है.... पराठा या दही-रोटी, वह रोटोमैक कलम से लिखना चाहता है या रेनॉल्ड्स कलम से, उसे कभी समझ नहीं आया। ठीक वैसे ही जैसे वह क्या बनना चाहता है उसे कभी समझ नहीं आया। कई बार उसे लगा वह रिक्शा चलना चाहता है या फिर पान की दूकान करना चाहता है।
"बहुत ऊंचाई पर पहुंचोगे एक दिन " लड़की ने बात पूरी की।
"क्या, रिक्शा चलाकर या पान की दूकान करके ?" लड़के ने खोए हुए कहा।
"चुप रहो और बकवास मत किया करो। कुछ भी बोलते हो।"
"तुम्हें पता है मुझे ऊंचाई से बहुत डर लगता है। मुझे वर्टिगो है... "
"तो?"
"तो ये कि जिस ऊंचाई की बात तुम कर रही हो वहां पहुंचकर डर गया तो ऐसी ऊंचाई का क्या काम।"
लड़के ने इसके बाद लेखक बनने का ख़याल छोड़ दिया।
अगला भाग अधूरी कहानी - बायोप्रोडक्ट
"कविता, मैं तो किसी कविता को नहीं जानता।" लड़के ने हँसते हुए बात घूमाने की कोशिश की। ऐसा अक्सर होता था। जब भी लड़की जानबूझ कर लड़के से बेवजह उलझती थी तो लड़के को बहुत मज़ा आता था और यूँ ही बातों का सिरा पकड़ के दौड़ने लगता था। वैसे कविता को नज़्म कहना और कहानी को अफ़साना उसने कब और क्यों कहना शुरू किया उसे खुद पता नहीं था।
"अच्छा ये बताओ, गुलज़ार साब की इस नज़्म को किस तरह समझा तुमने ?" लड़के ने पूछा।
ये वो लम्हे होते थे जब लड़की चहक उठती थी। उन पलों में उसके चेहरे पर गज़ब की रौनक आ जाती थी। लड़का अपलक निहारने लगता था। तब जवाब गौण हो जाया करता था।
"मुझे लगता है कि कवि प्रेम की उस पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है, जहाँ अब अपनी प्रेमिका का सानिध्य किसी तरह पाकर भी बेचैनी से नहीं छूट पायेगा। कवि को ऐसा लगता है कि अगले जन्म में अपनी प्रेमिका की कोख से जन्मे और माँ की तरह अलौकिक प्यार मिले तो शायद कहीं रूह को राहत मिले।"
"और कुछ" लड़के ने निर्विकार भाव से पूछा
"नहीं " लड़की ने आश्वस्त भाव से जवाब दिया।
लड़का अचानक से गुम हो गया। ऐसा अमूमन हो जाया करता था। लड़का कुछ पूछकर लड़की को अपलक निहारने लगता था और मुस्कुराता था। जवाब सुनकर मुस्कुराता था या लड़की को देखकर, कह पाना मुश्किल है। फिर गुम हो जाता था। लड़की को लगता था कि उसमें गुम है या फिर उसके जवाब में। वास्तव में लड़का कहाँ गुम हो जाया करता था यह उसे भी पता नहीं होता था। पर अभी वो ११४४ किलोमीटर दूर एक तपती दोपहरी के गर्म गाँव में गुम था, जहाँ उसकी माँ मिट्टी के ठंढे घर में बैठी थी।
माँ.…माँ बरसों से "माँ" जैसी दिखती है। कम रंगीन कपड़ों से माँ को मोहब्बत सी है, कम खाने से माँ को मोहब्बत सी है जैसे मोटे चश्में से माँ को मोहब्बत सी है। ओह चश्मा… मोहब्बत नहीं ज़रूरत। माँ की ज़रूरत और मोहब्बत में फर्क कर पाना मुश्किल था। माँ की ज़रूरत ही उसकी मोहब्बत बन जाती थी। इसका "वाईस - वर्सा" नहीं था।
माँ घर भर भरी रहती थी। ऐसा लगता था वो विष्णु का वामन अवतार हों जो इतना विशाल हो गया हो कि पूरा ब्रह्माण्ड भर ले। जब लड़का दोपहरी में भागता हुआ आता था तो माँ बाहर आम के पेड़ के तले उपले बनाते हुए दिखती थी। लड़का दौड़कर खाने को रसोई पहुँचता तो माँ उसे खाना दे रही होती थी। जब हाथ धोने पहुँचता तो माँ मुँह धुलाने को लोटे में पानी लेकर खड़ी होती थी। इस बीच पापा को मजदूरों के लिए ले जाने का कलेवा दे रही होती थी। माने ये की माँ हर जगह थी। लड़के ने एक बार बहुत तेज़ दौड़ लगायी आम के पेड़ से रसोई तक पर माँ फिर भी मौजूद थी। लड़के को लगा उसकी कई माँएं हैं।
लड़के ने लड़की की बात पर गौर किया। शायद पिछले जन्म में उसे अपनी माँ से ऐसा ही प्रेम हुआ होगा। इतनी ही शिद्दत से चाहा होगा, तभी इस जन्म में अपनी माँ की कोख से जन्मा। पर अगर ऐसा है तो इस जन्म में फिर से प्यार क्यों हुआ। वही बेचैनी और अधूरापन फिर से क्यों।
"क्या सोच रहे हो " लड़की ने उसकी नज़र के आगे हाथ हिलाकर पूछा।
"कुछ नहीं बाहर बहुत धू... "
"ओ हेलो … बाहर बारिश हो रही है " लड़की ने आश्चर्य से कहा।
"सच-सच बताओ क्या सोच रहे हो "
"मैं इस नज़्म बारे में सोच रहा था। जो तुमने समझा है वो बिलकुल सही है। पहली दफे मैंने भी यही समझा था। पर इसका एक और आयाम भी है। हो सकता है कवि बंटवारे के बाद नए देश में दर-दर भटका हो…अपने नाम अपनी पहचान के लिए। अंततः कहीं सुकून न पाकर चाहता हो कि अगले जन्म में रूहों का ऐसा बंटवारा न हो। जिस देश की मिट्टी में जन्मे वहीँ दफ़्न भी हो। "
लड़की की आँखें चमक उठीं। ऐसा लगा कि अभी चूम लेगी। पर कहा "वाह, तुम्हारी यही बातें मुझे अच्छी लगती हैं , एक अजीब सी सिहरन पैदा करती हैं जो शायद लोग प्यार में महसूस करते हैं। आई डोंट नो आई लव यू ऑर नॉट बट आई फील अॉल व्हाट पीपल फील इन लव " लड़की पर उसकी भावनाएं और उम्र दोनो हावी हो रही थीं।
"तुम्हें लेखक बनना चाहिए " लड़की ने उत्साह और गर्व से कहा।
"और ऐसा क्यों ?" लड़के ने अनमने ढंग से पूछा।
"अच्छा लिखते हो और समझते हो। शायद तुम्हारी साहित्य की समझ के कारण ही तुम मुझे अच्छे लगते हो।"
लड़के को समझ नही आया की खुश हो या दुःखी। अच्छा लगना पर सिर्फ साहित्यिक समझ के कारण ?
ख़ैर ऐसी उलझन सहज थी उसके लिए।
जैसे नाश्ते में वह क्या खाना चाहता है.... पराठा या दही-रोटी, वह रोटोमैक कलम से लिखना चाहता है या रेनॉल्ड्स कलम से, उसे कभी समझ नहीं आया। ठीक वैसे ही जैसे वह क्या बनना चाहता है उसे कभी समझ नहीं आया। कई बार उसे लगा वह रिक्शा चलना चाहता है या फिर पान की दूकान करना चाहता है।
"बहुत ऊंचाई पर पहुंचोगे एक दिन " लड़की ने बात पूरी की।
"क्या, रिक्शा चलाकर या पान की दूकान करके ?" लड़के ने खोए हुए कहा।
"चुप रहो और बकवास मत किया करो। कुछ भी बोलते हो।"
"तुम्हें पता है मुझे ऊंचाई से बहुत डर लगता है। मुझे वर्टिगो है... "
"तो?"
"तो ये कि जिस ऊंचाई की बात तुम कर रही हो वहां पहुंचकर डर गया तो ऐसी ऊंचाई का क्या काम।"
लड़के ने इसके बाद लेखक बनने का ख़याल छोड़ दिया।
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उपसंहार : अव्वल तो इसे कहानी समझा जाए। क्यूंकि हो सकता है पढ़ते हुए ये कहानी एक नज़्म सी लगे । कभी-कभी अफ़सानों में बहते-बहते पूर्णविराम, अर्धविराम की शक्ल लेने लगते हैं और फिर अफ़साना नज़्म बन जाया करता है । फिर यह भी हो सकता है कि पढ़ने के बाद यह रचना दोनों में से कुछ भी न लगे । अब एक ऐसी रचना जो किसी ढांचे में ना बांधी जा सके और उसपर भी अधूरी हो तो यह जरा अजीब सा है। इसलिए जिस अधूरेपन को पूरी कहानी में बांटना है वो इस एक शेर में मुकम्मल है :
एक अरसा लगा जिसे ढूँढ़ते ज़माने की भीड़ मेंसफ़हा सफ़हा खो रहा हूँ उसे अपनी तहरीर में
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- सिद्धार्थ: अधूरी कहानी - वर्टिगो
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