एक मजरूह सी रूह को
अपने सीने पे उठाए
मैं दायम हर नफस
मसीहा के दर पर

उम्मीद-ऐ-मसीहाई
का मुन्तज़िर भी नहीं
करिश्मा-ऐ-खुदाई
की कुरबत भी नहीं

पुरसोज़ आहें दफ्न हैं
दिल के बंद बाबों तले
इस अफसुर्दा जिंदगी की
अब और कोई तहरीर नहीं

कश्मकशे-गमे-पिन्हा का
क्या रंज एक बुत से करें
गर सोया है तो सोया रहे
जागा ही नही वो मुद्दतों से...

मरमरीं तराशी पत्थरों में
वो मसर्रत फरमाए
इस आतिश-बजा दिल को
तस्कीन मिले गर्द-ऐ-सफर से

हाँ, बस इतनी ही कैफ पिन्हा है
चाक-ऐ-जिगर में कि इक रोज़
मेरी तीरा-ओ-तार जिंदगी से
खुदा भी तो पशेमाँ होगा...

["एक मजरूह सी रूह" सिद्धार्थ द्वारा लिखी कविता है. और पढ़ने के लिए देखें  Siddharth ] 
Image Credit: Swan, Hilma Af Klint, Abstract Expressionism
 
Reference:
मजरूह- wounded
दायम- always
नफस- breath
मुन्तज़िर-waiting
कुरबत- togetherness
पुरसोज़- painful
बाबों- doors
अफसुर्दा- saddened
तहरीर- written record
कश्मकशे-गमे-पिन्हा- hidden sorrow
रंज- distress
मरमरीं- marbles
मसर्रत- rest
आतिश-बजा- surrounded with fire
तस्कीन-peace
गर्द-ऐ-सफर- dirt of journey
कैफ़- one last wish
पिन्हा- hidden
चाक-ऐ-जिगर-stabbed heart
तीरा-ओ-तार- fractured life
पशेमाँ- ashamed

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