दीवाली की छुट्टी को शर्मा जी पूरा एंजोय कर रहे थे। सुबह सुबह सभी रिश्तेदारो को फोन पर बधाई दी। दो - चार बर्फी और कुछ रसगुल्ले चाय के साथ अपने अन्तर्मन के हवाले किए। चाय की चुस्कियों के संगीत को श्रीमती जी का ‘राग-दीवाली’ भंग सा कर रहा था। फलाँ ने अपनी बीवी को क्या-क्या दिया और शर्मा जी ने क्या क्या नहीं दिया सारा बही-खाता श्रीमती जी प्रस्तुत कर रही थी।
सिर्फ 10 हज़ार की साडी… फकत 50 हज़ार के गहने! श्रीमती जी किसी विपक्षी नेता की तरह पतिदेव के उपलब्धियों को धूमिल किए जा रही थी और शर्मा जी पूर्ण बहुमत वाले नेता की तरह कान में बत्ती डाले अखबार की खबरो में गोते लगाते हुए बस हाँ-हूँ करते रहे।
कामवाली राधा आज सुबह जल्दी ही आ गयी थी। गरीब हुई तो क्या, दीवाली तो आखिर दीवाली ही है। वो भी पढे लिखे सभ्य लोगों की तरह वो भी अपने परिवार के साथ कुछ क्वालिटी टाइम चाहती थी। राधा ने मालकिन की पसंद का खास ध्यान रखते हुए खाना बनाया… घर के एक-एक कोने कूचे से धूल झाड़ी.... सारे बर्तन काँच की तरह चमकाए और सहमे से चेहरे से श्रीमती जी के पास पहुंची।
"मैडम जी, क्या आज मैं जल्दी चली जाऊँ? आज वो.... थोड़ा.... दीवाली है...तो मैंने सोचा... " राधा ने डरते डरते श्रीमती जी से कहा।
श्रीमती जी का पारा तुरन्त सातवें आसमान पर पहुँच गया। पर अपने आप सम्भालते हुए बोली-
"अरी रुक जा... थोड़ी और देर... इनाम दूंगी” बेचारी राधा.... मालकिन के डर से ज्यादा इनाम का लालच कारगर रहा। इनाम के ब्रह्मास्त्र ने सटीक जगह प्रहार किया और राधा के दारिद्र्य पीड़ित मन ने इनाम के रुपये में जितने सपने बुने जा सकते हैं, सब बुन डाले।
खैर... शर्मा जी , श्रीमती जी और पांच साल का बेटा पुलकित माल जाने के लिए तैयार थे। शर्मा जी की नयी कार में सब माल पहुंचे। आज तो माल की पार्किंग भी 100 रूपये घंटा। पर शर्मा जी के माथे पर कहाँ शिकन। पुलकित को एक 200 रूपये घंटे के प्ले एरिया में छोड़कर उन्होने 3 घंटे के लिए ‘प्राइवेसी’ खरीदी और राधा को बैठा दिया की बाबा को यदि लघु अथवा दीर्घशंका रूपी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़े तो सहायता कर सके। फिर 2000 रूपये की सिनेमा की टिकट , कुछ सौ के पॉप-कॉर्न और कोल्ड ड्रिंक और शर्मा दंपति दीवाली मनाने के लिए तैयार थे। बाहर बैठी राधा उलझी रहीं। उसे लगा था कि मेहमान आएंगे , खाना पीना होगा। पर उस नासमझ को क्या पता की फेस-बुक के जमाने में लोग फ़ोन भी नहीं करते। मेहमान नवाज लोग समझदारों की फेहरिस्त से कब के निकाले जा चुके हैं।
खैर , कुछ हज़ार रूपये और कुछ घंटों को फूंकने के बाद शर्मा दपंति दीवाली सेलिब्रेशन पार्ट -१ खत्म कर घर की और निकले। कार में मनों का युद्ध चल रहा था। जितनी जल्दी राधा को घर पहुँचने की, उतनी उत्कंठा मालकिन को रोकने की। जाते ही मालकिन ने राधा को पूजा की थाली लगाने और कुछ सजावट का काम दे दिया। जल्दी-जल्दी सारा काम निपटा कर राधा ने मालकिन से घर जाने के लिए कहा...बदले में मालकिन ने कभी भी खाली ना जाने वाला “बस 2 मिनट रुक जा” का क्लासिकल भारतीय दिव्यास्त्र चला दिया।
इन चंद लम्हों में राधा ने सैंकड़ो सपने सजा लिए।
“एक-दो फूलझड़ी प्रताप के लिए, दिया-बाती और थोड़े लड्डू पूजन के लिए... "
“ये ले। दीवाली अच्छे से मनाना और कल समय पर आ जाना " सोलह साल की लड़की की तरह सजी धजी अधेड़ मालकिन की आवाज़ उससे धरातल पर आई। उसे 50 का नोट पकड़ा कर मालकिन विजयी मुस्कान से उसे दरवाजे तक पहुंचाकर अंदर आ गयी.
राधा एक पल तक सोचती रही की उसकी दिन भर की मेहनत की कीमत क्या गाडी की पार्किंग से भी कम है? पर दिवाली के दिन मायूसी के अपशकुन को कैसे मन में टिकने देती?
“50 रुपये कौन से बुरे हैं? कुछ नहीं से तो कुछ भला... “ राधा ने मन में ढांढस बांधा और पटाखे की दुकान पर जा कर रुकी। एक तो दीवाली की शाम और पटाखे की दूकान... भयंकर भीड़। दुकान के आसपास की भीड़ चख-चख मचाने में 70 के दशक के दलालों को भी पीछे छोड़ रही थी।
वो शॉट्स कितने के हैं.… क्या दो हज़ार ? अमां मुर्गा छाप बताओ.... क्या तीन हज़ार? हाँ , वही दे दो।“
पैसे फ़ूकने को तैयार भीड़ के बीच खड़ी हुई राधा का साहस कपूर की टिकिया की तरह उड़ा जा रहा था... पर किसी तरह वो वो डटी रही। जैसे ही उसकी बारी आई, दूकान दार चिल्लाया " जल्दी बता, क्या चाहिए?"
“भैया , वो दो फूल झड़ी, और एक अनार दे दो” राधा थूक गटकती हुई बोली।
दुकान दार ने हिकारत भरी नजरो से देखा " खुले पटाखे बेचने का समय नहीं है... पूरा डिब्बा लेना है तो ले नहीं तो हवा हो...क्या सेठजी? बड़ी वाली लड़ी? मंगाता हूँ...चाय लीजिये पहले" दुकानदार ने राधा के साथ खड़े एक जनाब से कहा।
राधा की तो सारी कैलकुलेशन ही बिगड़ गयी। बेचारी, लाइन से हट गयी।
क्या करूँ , क्या ना करुँ। इसी उधेड़बुन में वो चलती रही। आगे कहीं पटाखे ब्लैक में बिक रहे थे. फूलझड़ी 7 रूपये , अनार 20 रूपये और राकेट 30 रूपये। अब नंगा नहाये क्या और निचोड़े क्या। दो फूलझड़ी खरीद के आगे बढ़ी। हलवाई की दूकान पर भी पटाखे की दूकान जैसी भीड़। चारों ओर जैसे गिद्धभोज मचा हुआ था...किलो भर मिठाई लेने वाला हर आदमी कमसकम एकाध पीस तो चखने के बहाने से चांप दे रहा था। किसी संभावी अपमान के आभास ने राधा को अंदर तक हिला दिया। पर फिर भी हिम्मत कर के वो आगे गयी। आखिर दो चार झिड़की सुनकर भी अगर पाव भर मीठा मिल जाए तो क्या बुरा है। लड्डू, सन पापड़ी और मैसूर पाक जैसी कुलीन मिठाइयों को लेने की भी राधा ना सोच पायी... आखिरकर सारा गणित लगाकर बात 120 रूपये किलो वाली, गरीब डालड़े की बूंदी पर जमी! बचे हुए 6 रुपए में 2 एक मिटटी के दिये खरीदे और घर पहुंची।
रात के आठ बज चुके थे। राधा का बेटा प्रताप घर के बाहर ही मिल गया और अपनी माँ को देख कर उछल पड़ा। पीछे पीछे उसके पिता जी भी आ गए, जो एक ऊँची ईमारत के सामने मारवाड़ियों के मुहल्ले में कपडे प्रेस करते थे। पुरातनपंथी सेठ दीवाली के दिन पैसे देना महा-अपशकुन मानते थे सो इनाम तो दूर , उसकी मेहनत की कमाई भी " खुल्ला नहीं है " कह के टाली जा चुकी थी।
राधा ने बूंदी से तीन लड्डू बनाये। दो छोटे और एक बड़ा। फिर आधे भरे दीयों को जलाकर , तीनो ने माँ लक्ष्मी को याद किया। सबसे छोटा लड्डू राधा ने खाया और अधीर होते प्रताप को फूल झड़ी थमा दी। उसे तो मानो सारा जहाँ मिल गया।
प्रताप फूलझड़ी लेकर बाहर भाग गया और राधा ठगी सी खड़ी सोचती रही महंगाई के बारे में..... सौ रूपये की पार्किंग , दो हज़ार की टिकट और बूंदी का लड्डू।
प्रताप तभी भागा भागा लौटकर आया और हाँफते हुए बोला- “अम्मा माचिस में तिल्ली तो खतम है...”
“अरे राम... माचिस लाना तो भूल ही गयी” राधा अपनी जीभ दांतों के बीच दबाती हुई बोली “ठहर जा कुछ करती हूँ” कहकर राधा अंदर भागी... ये देखने कि लक्ष्मी मैया की किरपा से पूजा का कोई दिया शायद अभी भी जल रहा हो...
[By Arun Dhanda. और पढ़ने के लिए देखें Bandhak ]
Editorial Credits : Gajendra Singh Sikarwar, Kumar Ashutosh
Picture Credits: The Peasant War, Käthe Kollwitz, Style: Abstract Expressionism
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liked it...especially the contrast you wanted to convey (y)
ReplyDeleteThank You Chandresh (on behalf of the writer as well).
DeleteSpread the story. :-)
Very nice blog. I like it.
ReplyDeleteThanks Anil.
DeleteIf you liked the story, do share.
#SpreadTheHappiness
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