अब चार सालो के बाद
मुझे सुधरने का सबक
ना ही दो तो अच्छा है
के मेरी बेतरतीबी में ही कहीं
सुकून छिपा है मेरा
तुम जब जा रही थी
तब, उस वख़्त
मैने तुम्हारी बातों में आके
अपना कमरा साफ किया था..
उस दिन को आज
चार साल हो गए
पता नहीं
गद्दे के कौन से कोने के नीचे
मेरी नींद दबी पड़ी है,
और अलमारी में पड़ी किताबो मे से
किस किताब के पन्नों
के बीच, मेरा चैन
खोया पड़ा है..
पहले की बात और थी
तुम मेरी हर चीज़
संभाल कर रखती थी...
कभी तुमसे अपनी
नींद मांग लेता था
कभी तुमसे पूछ लेता था
के मेरा चैन
कहां संजो कर रखा है तुमने
अब ना तुम रही
ना कोई वैसा शख़्स
जो बता सके
के मेरी चीजें कहां रखी हैं...
अपने जाने के बाद
मुझे पहले जैसा
बेतरतीब ही रहने दो...
जब मेरी जींस की एक जेब में
मेरी नींद पड़ी मिल जाती थी
जब मेरी शर्ट की पॉकेट में
मेरा चैन पड़ा मिल जाता था...
मुझे सुधरने का सबक
ना ही दो तो अच्छा है
मुझे पहले जैसा
बेतरतीब ही रहने दो...
["बेतरतीब" राहुल द्वारा लिखी "ख्यालात" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें Khayalat ]
Picture credits: Jackson Pollock, Untitled (O’Connor-dégel 771), around 1953, Abstract expressionism
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