बूंदी का लड्डू


दीवाली की छुट्टी को शर्मा जी पूरा एंजोय कर रहे थे। सुबह सुबह सभी रिश्तेदारो को फोन पर बधाई दी। दो - चार बर्फी और कुछ रसगुल्ले चाय के साथ अपने अन्तर्मन के हवाले किए। चाय की चुस्कियों के संगीत को श्रीमती जी का ‘राग-दीवाली’ भंग सा कर रहा था। फलाँ ने अपनी बीवी को क्या-क्या दिया और शर्मा जी ने क्या क्या नहीं दिया सारा बही-खाता श्रीमती जी प्रस्तुत कर रही थी। 

सिर्फ 10 हज़ार की साडी… फकत 50 हज़ार के गहने! श्रीमती जी किसी विपक्षी नेता की तरह पतिदेव के उपलब्धियों को धूमिल किए जा रही थी और शर्मा जी पूर्ण बहुमत वाले नेता की तरह कान में बत्ती डाले अखबार की खबरो में गोते लगाते हुए बस हाँ-हूँ करते रहे।

कामवाली राधा आज सुबह जल्दी ही आ गयी थी। गरीब हुई तो क्या, दीवाली तो आखिर दीवाली ही है। वो भी पढे लिखे सभ्य लोगों की तरह वो भी अपने परिवार के साथ कुछ क्वालिटी टाइम चाहती थी। राधा ने मालकिन की पसंद का खास ध्यान रखते हुए खाना बनाया… घर के एक-एक कोने कूचे से धूल झाड़ी.... सारे बर्तन काँच की तरह चमकाए और सहमे से चेहरे से श्रीमती जी के पास पहुंची।

"मैडम जी, क्या आज मैं जल्दी चली जाऊँ? आज वो.... थोड़ा.... दीवाली है...तो मैंने सोचा... " राधा ने डरते डरते श्रीमती जी से कहा। 

श्रीमती जी का पारा तुरन्त सातवें आसमान पर पहुँच गया। पर अपने आप सम्भालते हुए बोली-

"अरी रुक जा... थोड़ी और देर... इनाम दूंगी” बेचारी राधा.... मालकिन के डर से ज्यादा इनाम का लालच कारगर रहा। इनाम के ब्रह्मास्त्र ने सटीक जगह प्रहार किया और राधा के दारिद्र्य पीड़ित मन ने इनाम के रुपये में जितने सपने बुने जा सकते हैं, सब बुन डाले।

खैर... शर्मा जी , श्रीमती जी और पांच साल का बेटा पुलकित माल जाने के लिए तैयार थे। शर्मा जी की नयी कार में सब माल पहुंचे। आज तो माल की पार्किंग भी 100 रूपये घंटा। पर शर्मा जी के माथे पर कहाँ शिकन। पुलकित को एक 200 रूपये घंटे के प्ले एरिया में छोड़कर उन्होने 3 घंटे के लिए ‘प्राइवेसी’ खरीदी और राधा को बैठा दिया की बाबा को यदि लघु अथवा दीर्घशंका रूपी प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़े तो सहायता कर सके। फिर 2000 रूपये की सिनेमा की टिकट , कुछ सौ के पॉप-कॉर्न और कोल्ड ड्रिंक और शर्मा दंपति दीवाली मनाने के लिए तैयार थे। बाहर बैठी राधा उलझी रहीं। उसे लगा था कि मेहमान आएंगे , खाना पीना होगा। पर उस नासमझ को क्या पता की फेस-बुक के जमाने में लोग फ़ोन भी नहीं करते। मेहमान नवाज लोग समझदारों की फेहरिस्त से कब के निकाले जा चुके हैं।

खैर , कुछ हज़ार रूपये और कुछ घंटों को फूंकने के बाद शर्मा दपंति दीवाली सेलिब्रेशन पार्ट -१ खत्म कर घर की और निकले। कार में मनों का युद्ध चल रहा था। जितनी जल्दी राधा को घर पहुँचने की, उतनी उत्कंठा मालकिन को रोकने की। जाते ही मालकिन ने राधा को पूजा की थाली लगाने और कुछ सजावट का काम दे दिया। जल्दी-जल्दी सारा काम निपटा कर राधा ने मालकिन से घर जाने के लिए कहा...बदले में मालकिन ने कभी भी खाली ना जाने वाला “बस 2 मिनट रुक जा” का क्लासिकल भारतीय दिव्यास्त्र चला दिया।

इन चंद लम्हों में राधा ने सैंकड़ो सपने सजा लिए। 

“एक-दो फूलझड़ी प्रताप के लिए, दिया-बाती और थोड़े लड्डू पूजन के लिए... " 

“ये ले। दीवाली अच्छे से मनाना और कल समय पर आ जाना " सोलह साल की लड़की की तरह सजी धजी अधेड़ मालकिन की आवाज़ उससे धरातल पर आई। उसे 50 का नोट पकड़ा कर मालकिन विजयी मुस्कान से उसे दरवाजे तक पहुंचाकर अंदर आ गयी.  

राधा एक पल तक सोचती रही की उसकी दिन भर की मेहनत की कीमत क्या गाडी की पार्किंग से भी कम है? पर दिवाली के दिन मायूसी के अपशकुन को कैसे मन में टिकने देती? 

“50 रुपये कौन से बुरे हैं? कुछ नहीं से तो कुछ भला... “ राधा ने मन में ढांढस बांधा और पटाखे की दुकान पर जा कर रुकी। एक तो दीवाली की शाम और पटाखे की दूकान... भयंकर भीड़। दुकान के आसपास की भीड़ चख-चख मचाने में 70 के दशक के दलालों को भी पीछे छोड़ रही थी।

वो शॉट्स कितने के हैं.… क्या दो हज़ार ? अमां मुर्गा छाप बताओ.... क्या तीन हज़ार? हाँ , वही दे दो।“

पैसे फ़ूकने को तैयार भीड़ के बीच खड़ी हुई राधा का साहस कपूर की टिकिया की तरह उड़ा जा रहा था... पर किसी तरह वो वो डटी रही। जैसे ही उसकी बारी आई, दूकान दार चिल्लाया " जल्दी बता, क्या चाहिए?"

“भैया , वो दो फूल झड़ी, और एक अनार दे दो” राधा थूक गटकती हुई बोली।

दुकान दार ने हिकारत भरी नजरो से देखा " खुले पटाखे बेचने का समय नहीं है... पूरा डिब्बा लेना है तो ले नहीं तो हवा हो...क्या सेठजी? बड़ी वाली लड़ी? मंगाता हूँ...चाय लीजिये पहले" दुकानदार ने राधा के साथ खड़े एक जनाब से कहा।

राधा की तो सारी कैलकुलेशन ही बिगड़ गयी। बेचारी, लाइन से हट गयी। 

क्या करूँ , क्या ना करुँ। इसी उधेड़बुन में वो चलती रही। आगे कहीं पटाखे ब्लैक में बिक रहे थे. फूलझड़ी 7 रूपये , अनार 20 रूपये और राकेट 30 रूपये। अब नंगा नहाये क्या और निचोड़े क्या। दो फूलझड़ी खरीद के आगे बढ़ी। हलवाई की दूकान पर भी पटाखे की दूकान जैसी भीड़। चारों ओर जैसे गिद्धभोज मचा हुआ था...किलो भर मिठाई लेने वाला हर आदमी कमसकम एकाध पीस तो चखने के बहाने से चांप दे रहा था। किसी संभावी अपमान के आभास ने राधा को अंदर तक हिला दिया। पर फिर भी हिम्मत कर के वो आगे गयी। आखिर दो चार झिड़की सुनकर भी अगर पाव भर मीठा मिल जाए तो क्या बुरा है। लड्डू, सन पापड़ी और मैसूर पाक जैसी कुलीन मिठाइयों को लेने की भी राधा ना सोच पायी... आखिरकर सारा गणित लगाकर बात 120 रूपये किलो वाली, गरीब डालड़े की बूंदी पर जमी! बचे हुए 6 रुपए में 2 एक मिटटी के दिये खरीदे और घर पहुंची। 

रात के आठ बज चुके थे। राधा का बेटा प्रताप घर के बाहर ही मिल गया और अपनी माँ को देख कर उछल पड़ा। पीछे पीछे उसके पिता जी भी आ गए, जो एक ऊँची ईमारत के सामने मारवाड़ियों के मुहल्ले में कपडे प्रेस करते थे। पुरातनपंथी सेठ दीवाली के दिन पैसे देना महा-अपशकुन मानते थे सो इनाम तो दूर , उसकी मेहनत की कमाई भी " खुल्ला नहीं है " कह के टाली जा चुकी थी।

राधा ने बूंदी से तीन लड्डू बनाये। दो छोटे और एक बड़ा। फिर आधे भरे दीयों को जलाकर , तीनो ने माँ लक्ष्मी को याद किया। सबसे छोटा लड्डू राधा ने खाया और अधीर होते प्रताप को फूल झड़ी थमा दी। उसे तो मानो सारा जहाँ मिल गया। 

प्रताप फूलझड़ी लेकर बाहर भाग गया और राधा ठगी सी खड़ी सोचती रही महंगाई के बारे में..... सौ रूपये की पार्किंग , दो हज़ार की टिकट और बूंदी का लड्डू।   

प्रताप तभी भागा भागा लौटकर आया और हाँफते हुए बोला- “अम्मा माचिस में तिल्ली तो खतम है...”

“अरे राम... माचिस लाना तो भूल ही गयी” राधा अपनी जीभ दांतों के बीच दबाती हुई बोली “ठहर जा कुछ करती हूँ” कहकर राधा अंदर भागी... ये देखने कि लक्ष्मी मैया की किरपा से पूजा का कोई दिया शायद अभी भी जल रहा हो...
 
 
 [By Arun Dhanda. और पढ़ने के लिए देखें Bandhak 
 
Picture Credits: The Peasant War, Käthe Kollwitz, Style: Abstract Expressionism
 
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ख्यालात: सो कॉल्ड बुद्धिजीवी

 
 
सो कॉल्ड बुद्धिजीवी...

एक दिन पटाखे जला दिये
तो इनके फेफड़ों में धुआं सा जम जाता है...
एक दिन होली खेल ली
 तो इन्हे सोमालिया में खड़े
प्यासे बच्चों की याद आ जाती है

सब के सब ... बुद्धिजीवी बन जीते हैं.

डियर लेडीज़ एंड जेंटिलमेन,

साल के तीन सो चौंसठ दिन
सामान खरीदने समय
प्लास्टिक का कैरी बैग तुम्हे चाहिये...
अपने घर में काम करने के लिये
एक बारह चौदह साल का छोटू
 या पिंकी तुम्हे चाहिये..
अपनी कार, हर सवेरे,
धुली हुई तुम्हे चाहिये..
 रुमाल बड़ा मिडिल क्लास लगता है
 रेस्टूरेंट में एक के बाद एक
 टिश्यू तुम्हे चाहिये..

पर हां...
 तुमसे कुछ बोलना भी तो मेरी हिमाकत होगी..
 तुम ठहरे पढ़े लिखे `इंटेलेक्चुअल`
जो अपने बच्चों को
कार के शीशे के अदर से दिखाते हो
ये बोल के कि बेटा
 "सी.. पीपल आर सेलेब्रेटिंग दिवाली.."
 और हम ठहरे मिडिल क्लास
 जो अपने वच्चों को बोलतें हैं
"ले बेटा पटाखे और दिवाली मना
वरना बुद्धिजिवियों के बच्चों को
पता कैसे चलेगा कि दिवाली क्या है".
["सो कॉल्ड बुद्धिजीवी" राहुल द्वारा लिखी "ख्यालात" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें  Khayalat ] 
Image Credit: Starry Night, Edvard Munch, Expressionism, courtesy: J. Paul Getty Museum, Los Angeles 
 
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बन्धक: कुछ कुछ देखा है

 
कुछ कुछ देखा है
पर समझ नही पाया,

पहले लगा शायद
मा बाप का प्यार ही प्रेम है,
फिर समझ मे आया ये तो एक जाल है
 रीत में बाँधने का..
रीत में अगर जड़ जाओ तो सुपुत्र वरना ...

फिर एक प्रेयसी मिली..
लगा उसकी आँखों में जो भाव है वही प्रेम है,
फ़िर समझ में आया
ये तो देह की लालसा है,
प्रेम नही है...

फिर एक पत्नी मिली,
उसने निस्वार्थ भाव से ख़याल रखा
मन का, तन का ,
लगा प्रेम मिल गया
पर यह तो सेवा है, प्रेम नही है...

फिर कुछ बच्चे हुए,
मासूम से, भोले से,
उनके तुतलाने को समझा की प्रेम है,
फिर समझ में आया, ये तो आशीर्वाद है,
जिम्मेदारी की दस्तक है...

जीवन के सभी पडाव पार कर लिये
कुछ कुछ देखा है
पर समझ नही पाया,
जो सुना करता था कहानियों में
वो प्रेम क्या है,
मैं नहीं जान पाया !!!


 ["कुछ कुछ देखा है" Arun Dhanda द्वारा लिखी "बन्धक" संग्रह की कविता है. और पढ़ने के लिए देखें Bandhak ] 
Picture Credit: Senecio, by Paul Klee 
 
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बदला


(1)

सितंबर 1987
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पतलूनों का भी मज़हब होता है। अमीरों के पतलून मुस्लिम अथवा ईसाई मत पर चलते हैं... जो एक बार जीवन काल पूरा हुआ तो सीधे कचरे के दोज़ख में, पुनर्जन्म की की कोई गुंजाइश नहीं। मध्यमवर्ग के पतलून हिन्दू अथवा बौद्ध सिद्धांतों के अनुयायी होते हैं। पहनावे के रूप में जीवन पूरा हुआ तो सब्जी के झोले के रूप में नया कलेवर पाते हैं। झोला मृतप्राय हुआ तो पौंछे की योनि धारण करता है। पौंछा का शरीर भी जब घुल जाये तो साइकल की सीट साफ करने वाली गुदड़ी बन जाता है... और जब इन सभी योनियों से गुजरकर अपने पाप-पुण्य गंवा देता है तो मुक्त होकर बुद्ध द्वारा बताई गयी ‘शून्यावस्था’ को प्राप्त हो जाता है। शिक्षा विभाग के बाबू सिंघल जी का होली पर भी पहना जा चुका पुराना पतलून चिंतामग्न सी श्रीमती सिंघल की सिलाई मशीन के नीचे अपने नए जीवन चक्र में प्रवेश कर रहा था। पास में उनका 10 वर्षीय सुपुत्र पंकज बैठा हुआ होमवर्क कर रहा था। बाहर नवरात्रे के पंडाल से जयकारों की कर्णभेदी चिंघाड़ें पूरे घर को गुंजा रही थी।
ये उस जमाने की बात है जब मकान बनाना भागीरथ कृत्य नहीं हुआ करता था और भले लोग लंबे-चौड़े मकान बनाते थे और पुण्य कार्य जानकर औने-पौने दामों पर किरायेदार रखा करते थे। सिंघल जी ने मकान के ऊपरी तल्ले के अपने निवास में प्रवेश कर धरमपत्नि को किराएदारों से वसूला किराया दिया और हाथ मुंह धोने गुसलखाने में चले गए। सिंघलजी मुह हाथ धोकर बाहर निकले तो श्रीमती जी को प्रश्नवाचक मुद्रा में पाया।
“क्या हुआ?” सिंघल बाबू अपने स्वाभाविक नरम स्वर में बोले
“आज फिर परमार के बेटों ने मिल के पंकज के साथ मार पिटाई की”
“हाँ, तो क्या हुआ? अब बच्चों की धींगामुश्ती में क्या दखल देना?”
“बात धींगामुश्ती की नहीं है...”
“तो फिर क्या बात है?”
“बच्चे मार पिटाई करें तो ठीक है...पर परमार के तीनों ही बेटे इसको ‘अबे ओ बनिया के’ कहकर क्यूँ धमकाते हैं? आज मैं ऊपर से सुन रही थी... पंकज ने जब कहा कि वो तुमसे शिकायत करेगा तो अंदर से परमार की घरवाली निकल के आई और इससे बोली कि ‘कर देना जिससे शिकायत करनी है... ठाकुरों के लड़के हैं, बनियों के नहीं जो दब जाएँ’।‘ अब भला तुम बताओ बच्चों के बीच ऐसी बात करता है कोई? पहले ही कहा था, ठाकुरों के किराये पे घर मत दो” श्रीमती तड़प कर बोली।
“ अरे ये क्या बात हुई? संचित भी तो ठाकुर है... फिर भी कैसा गौ है...एक ऐब नहीं... बनियो के लड़कों में भी उस सा कोई भला है? बेचारे का एडिटर तरसा तरसा कर तनख़्वाह देता है, पर देखो महीने की पहली तारीख को किराया हाथ पर रख देता है। हाँ, परमार की घरवाली की बात ठीक नहीं लगी मुझे” सिंघल बाबू ने सहानभूति देकर बात को टालने की कोशिश की। पर आज श्रीमती भी इस बात को आसानी से आया-गया करने के विचार से नहीं थीं।
“ अरे तो मुझे क्या बोलते हैं? जाकर उसको समझाइए... और एक बात बताइये, ये किराया क्यूँ नहीं दे रहा है...आज सात महीने हो गए...”
“अच्छा मैं कर लूँगा बात”
“और अगर ना दिया इस महीने भी किराया तो खाली करने को बोल दीजिएगा?”
“और ऐसा भी क्या हुआ कि कुछ महीने किराया ना दे पाया तो घर से ही निकाल दे। भूल गयी पंकज को कंधे पे चढ़ाये घूमता था यही। ठाकुर जी ने इतना बड़ा मकान दिया है कि कुछ भले लोगों को बसाएँ, इसलिए नहीं कि कुछ महीने किराया ना मिले तो धौंस जमाएँ” सिंघल जी ने बोला...
पर वो ये भी जान गए कि अब अगर परमार ने किराया ना दिया तो श्रीमति जी उनको छोडने वाली नहीं हैं।

(2)
अक्तूबर 1987
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हवा में गुलाबी सी ठंड घुलने लगी थी। कार्तिक का महीना था, जहाँ एक ओर दीवाली का रंगो-आब और रौनक हवा में शुमार थे तो दूसरी ओर किशोर कुमार की मृत्यु से भग्नहृदय हुए दिलजले युवक हर गली मुहल्ले में देसी असेंब्लेड औडियो सिस्टम पर ऊंची आवाज़ में किशोरदा के दर्द भरे गीत बजा रहे थे। सिंघल जी अपनी तंख्वाह अंटी में सम्हाले हुए सीढ़ियाँ चढ़ते हुए घर में पहुंचे।
“ चखिए तो ज़रा, मगद के लड्डू कैसे हैं?” श्रीमती जी ताज़े ताज़े बंधे हुए मगद* के चार लड्डू और पानी का गिलास लेकर आयीं, ठाकुरजी को भोग लगाए जाने के प्रतीक रूप में एक तुलसीदल लड्डू के ऊपर लगा हुआ था। पास ही पंकज माँ की ओर देखता हुआ खड़ा था, इस प्रतीक्षा में कि कब पापा लड्डू चखें और उसे भी खाने को मिले।
बनियों की स्त्रियाँ अद्वितीय रसोइयाँ होती हैं क्यूंकि उनके पुरुष जैसे स्वाद के पारखी इंसान भी धरती पर दूसरे नहीं होते। मुहल्ले कि ऐसी कोई शादी ना थी जिसमे सिंघल जी को अग्राशन (खाने का पहला ‘सेंपल’) परखने ना बुलाया गया हो। गुलाबजामुन की चाशनी पकी या नहीं, गुजियाँ कितनी खस्ता हुईं हैं, तरकारी में रंग उतरा है या नहीं, झोल एकरस हुआ या नहीं, सिंघल जी एक कौर में परख लेते थे। उनकी दी हुई राय पर मारवाड़ियों के हलवाई भी प्रतिवाद ना करते थे।
“बढ़िया हैं”
“क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?”
“हाँ ठीक है... ये तनख़्वाह रख दो...” श्रीमती जी को लिफाफा थमाते हुए सिंघल बाबू ने कहा।
“ये तो बस 12000 हैं... इस बार दीवाली बोनस नहीं मिला क्या?”
लेकिन सिंघल बाबू बजाय उत्तर देने के शून्य में घूरते रहे।
“क्या बात है?” श्रीमती जी ने आशंकित से स्वर में पूछा।
“वो... परमार...” सिंघल बाबू कहते कहते चुप हो गए। श्रीमती जी उनकी ओर देखती रहीं “परमार को दे दिये” सिंघल बाबू एक सांस में बोले जिस तरह कोई बालक एक घूंट में कड़वी दवाई की चम्मच पी जाता है।
“क्या?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ। और वो सिंघल बाबू को चुपचाप एकटक देखती रहीं।
“उसके पास बोलने गया था किराया देने को पिछले हफ्ते... उसने कहा नहीं है। फिर आज फिर गया मांगने... तो उसने कहा कि 12000 रुपये दो”
“12000 रुपया? किस बात का?” श्रीमती जी को विश्वास नहीं हुआ।
“घर खाली करने का... कह रहा था कि कोई किराया नहीं देगा... अगर घर खाली करना है तो अभी के अभी 12000 रुपया दो”
“और तुम उससे दब गए? कचहरी में कितने दोस्त हैं तुम्हारे... मदनलाल बाबूजी से तो मिलते”
“कोई फायदा नहीं होगा... उसने एक बार कब्जा जमा लिया तो सालों साल मुकदमा चलेगा। और उसने ये भी कहा कि अगर... अगर मुकदमा किया तो हमारे पंकज को अगवाह करके चंबल में फेंक देगा” सिंघल बाबू ने गर्दन झुकाकर कहा।
“हा राम” श्रीमती जी का मुंह खुला रह गया और अनायास ही उन्होने नन्हें पंकज को भींच लिया। “कोई बात नहीं है... जो गया सो गया... करोड़ों रुपये न्योछावर मेरे नन्हे पर”
इसके बाद घर में कोई एक शब्द नहीं बोला... खाना खाकर तीनों जन लेट गए।
“अरे अब चिंता छोड़ दीजिये... इतने से पैसों पे दुखी होने लायक कमजोर थोड़े ही हैं हम... पंकज बड़ा होकर लाखों कमाएगा” नन्हे पंकज के चेहरे पर क्षीण सी मुस्कान आ गयी।
“पूरे जिले में पढ़ने में मुझसे आगे कोई ना था... बाबूजी ये क्लर्क की ही नौकरी करवाने पे अड़ गए... अगर उन्होने थोड़ा साथ दिया होता और सिविल सर्विस को बैठने देते तो जाने आज क्या ही होते हम।“ सिंघल जी धीरे से सांस छोडकर बोले।
“पर चलो कोई बात नहीं... पंकज को पढ़ाएंगे हम... हमारा पंकज बड़ा होकर कलेक्टर बनेगा... फिर परमार जैसे सब गुंडों की धुलाई कर देगा” श्रीमती जी बेटे का माथा चूमते हुए बोली।
“अरे तुम भी क्या ओछी बातें करती हो? बेटे को कलेक्टर इसलिए बनाओगी कि वो परमार से लड़ सके। ये छोटी बातें ना सिखाओ इसे” सिंघल जी ने झिड़ककर कहा।
“अरे इसमें क्या ओछा है? बनियों का बेटा और कैसे ठाकुरों की बराबरी करेगा। जब हमारा नन्हा बड़ा होके कलेक्टर बनेगा तो सारे अन्याय का बदला लेगा और परमार के गले में हाथ डालके खींच लेगा सारा पैसा” श्रीमती जी बिना हतप्रभ हुए बोली।
सिंघल बाबू जान गए थे कि बोलने का कुछ फायदा नहीं है।

मकान की कोरों में बूंद बूंद रिस्ता हुआ पानी जब सीली हुई दरारों में जमे नन्हे पीपल की कौंपल को सींचता है तो किसी को अंदाजा नहीं होता की यही नन्हा सा पीपल पूरे नींव को खोखला कर घर की भीत गिरा सकता है। उसी तरह माता पिता की कही हुई छोटी छोटी बातें भी बाल मानसिकता को ऐसा प्रभावित करती हैं कि समूचे राष्ट्रों के विधान का निर्माण या नाश हो जाया करता है।

श्रीमती जी के एक वाक्य ने नन्हे पंकज के चरित्र को बदल डाला था। अधिक प्रताड़ित मन में हिंसा और प्रतिशोध को संचित रखने की और उसे पोषित करने  की क्षमता असीम होती है। महाभारत युद्ध का रक्त रंजन दुर्योधन के बाल मन की हिंसा और हीं भावना का ही प्राकट्य तो था। पंकज का बालमन भी माता के इस वाक्य में प्रतिशोध की संभावना पा गया था। मकान की दरारों में पनप रहे एक पीपल के पौधे ने नींव की ओर अपनी जड़ें बढ़ा दी थी।
(3)
जून 1998
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बदले के इंतज़ार में बिताया हुआ वक़्त दिवास्वप्न की तरह होता है... 5 पल और 50 साल की अवधि एक सी मालूम होती है। पंकज के जीवन के पिछले 12 वर्ष भी धुएँ से उड़ गए थे। पंकज ने जब से माँ को गर्वान्वित स्वर में बोलते सुना था कि “जब हमारा नन्हा बड़ा होके कलेक्टर बनेगा तो सारे अन्याय का बदला लेगा”, उसका सारा जीवन अग्नि बन गया था... प्रकाश देती सुगंधित समिधाग्नि (हवन काष्ठ की आग) नहीं, भूसे की आग... हर पल तिल-तिल सुलगती हुई... लगातार धुआँ उगलकर सब कुछ जहरीला कर देने वाली। जब से परमार घर खाली करके गया पंकज का बचपन भी विदा हो गया। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य था, आई॰ए॰एस॰ बनकर परमार से अपने पिता का बदला लेना। पंकज ने दिन रात एक कर दिया पढ़ाई में, उसके जीवन का कोई दूसरा रस ना था। परिणाम यह हुआ कि उसके जीवन में उसके बदले के अलावा कुछ भी ना था... ना बचपन का खेल... ना तरुणाई की मीठी भूलें और ना युवावस्था का देदीप्यमान उत्साह... बस प्रतिशोध की चाह ही जीवन का अवलंबन बन गयी थी। ऐसे नीरस शुष्क बालक के मित्र भी कहाँ से होते? ले देकर बस पड़ोस का एक लड़का था सुजय, जिसे लोग पंकज का मित्र मानते थे और पंकज जिसे मात्र पड़ोसी का लड़का।
यू॰पी॰एस॰सी॰ का इंटरव्यू हो चुके थे और बस रिजल्ट का इंतज़ार था। पंकज सूजय के साथ बैठा शतरंज खेल रहा था। टी॰वी॰ पर सेट मैक्स पर जनवरी में शुरू हुए कार्यक्रम सी॰आई॰डी॰ का एडवरटाइज़मेंट आ रहा था।
“अरे तेरा रिजल्ट कब आ रहा है?” सुजय ने पूछा
“अरे आ जाएगा। तुझे क्या करना है? तेरी बी॰ए॰ तो चल रही है ना?” पंकज ने चिढ़कर बोला
“अबे वो तो चल ही रही है पिछले 5 साल से... और चलने दो साली को” सुजय ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।
“तुझे चिंता नहीं कि क्या होगा तेरा ज़िंदगी में”
“बिलकुल भी नहीं” सुजय ने कहा
“अबे तेरा कुछ नहीं हो पाएगा। तेरी जिंदगी ऐसी ही जाएगी”
“अबे मेरी ज़िंदगी बहुत मस्त जाएगी... Because I am vhery pojhitiv! अच्छा ये बता पिच्चर देखने चलेगा? ‘वीराना’ लगी है टॉकीज में... बहुत खतरनाक डरावनी धांसू फिलिम है... उसमें हीरोइन भी बहुत मस्त है...जासमीन”
तभी दरवाजे की घंटी बजी और सुजय की बात अधूरी रह गयी। पंकज खेल छोडकर दरवाजा खोलने गया। दरवाजा खोला...
सामने परमार खड़ा था…
पंकज ने सूजय को विदा कर दिया। परमार आमंत्रण की प्रतीक्षा किए बिना सर झुकाये हुए बैठक में आ गया।

(4)

बैठक में अचकचाया हुआ सा सन्नाटा पसरा हुआ था। सिंघल बाबू इधर उधर देख रहे थे, श्रीमती जी जलती आँखों से परमार को देखे जा रही थी, परमार की आँखें एकटक ज़मीन में गड़ी हुई थी और पंकज दीवार से टिककर खड़े हुए परमार के बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
परमार धीरे से अपनी कुर्सी से उठा, धीमे कदमों से चलते हुए सिंघल बाबू तक पहुंचा और सिंघल बाबू का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़कर भूमि पर सर झुकाकर बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। सिंघल बाबू बेचारे झेंपे से यूं ही बैठे रहे।
“बाबूजी! मुझे माफ कर दो... मुझसे भारी पाप हुआ” परमार रुदन रुद्ध कंठ से बोला।
“क्यूँ जब हमसे 12000 रुपया छीनकर लिया था, तब दुख नहीं हुआ था... अब नाटक करने आया है।“ श्रीमति जी गुस्से से कांपती हुई बोली।
परमार ने आँसू भरी हुई आँखों से श्रीमति जी को देखा और फिर से आँखें झुका लीं
“माता जी! मैं बुरा आदमी नहीं हूँ। मैंने वो सब मजबूरी में ही किया था” परमार ने कहा।
सिंघल बाबू और श्रीमति जी किंकर्तव्यविमूढ़ एक दूसरे को देख रहे थे। 
“गाँव में बड़े भाइयों के साथ बंटवारा हुआ था। सबने नहर पास की जमीन अपने में बाँट ली। मुझे थोड़ी सा बंजर वाला हिस्सा थमा दिया। मैं अकेला पड़ गया... मेरे बच्चे भी छोटे थे। ज्यादा खुलकर विरोध किया तो पूरे गाँव के सामने मुझे पीटा। बाबूजी रॉम रोम टूटा जाता था अन्याय के भार तले। ना आगे कुछ दिखता था ना पीछे का कोई छोर था। दो ही रास्ते थे, या तो जो जमीन है उसे स्वीकार कर लूँ या बागी होकर बीहड़ में चला जाऊँ। पर जब भी बच्चों का मुंह देखता था... खुद को ही रुलाई आ जाती थी... बन्दूक उठाने का कलेजा नहीं हुआ... जैसे तैसे जमीन बेच बाच के शहर आ गया।“ परमार ने क्षण भर को रुक कर सिंघल बाबू को देखा, “यहाँ आकर आपके मकान में साल भर अच्छा बीता। लेकिन ठाकुर दूर गए हुए भाई की भी जड़ें खोदने से कहाँ बाज़ आते है। अभी कुछ रुपया बचा भी ना पाया था कि मँझले भाई ने मुकदमा दायर कर दिया।“
“अब किस चीज के लिये मुकदमा कर दिया अन्यायियों ने?” श्रीमति ने सदय स्वर में पूछा।
“माता जी! चंबल किनारे के ठाकुर फसल पकने के समय में झगड़े करते हैं और जब फसल से फारिग हो जाते हैं तो मुकदमे लड़ते हैं। मेरे भाई ने केस कर दिया कि उसे बिना बताए मैं खानदानी जमीन बेचकर खा गया। अब गाँव की पंचायत का किया हुआ बंटवारा था। ना पटवारी का निशान था और ना कानूनगो के दस्तखत। मैं शर्तिया मुकदमा हारता। भाई ने मुकदमा दाखिल ना करने के 12000 रुपए मांगे। कहाँ से लाता इतना पैसा? बस बाबूजी तभी मैंने गो हत्या से भी बड़ा पाप किया... आपसे पैसा छीनना पड़ा।“ परमार सकुचाकर जैसे जमीन में गड़ा जा रहा था।
“पर बाबूजी एक दिन भी ऐसा नहीं गया जिस दिन अपने किए पे ठाकुर जी के आगे रोया ना होऊँ। हर दिन इसी इंतज़ार में काटा कि कब आपके पैर पकड़ कर माफी माँगूँगा और आपका पैसा चुकाऊंगा।“ परमार का स्वर ईमानदारी से खनक रहा था। “बाबूजी ये लीजिये आपकी धरोहर...इसमे 11 साल का ब्याज भी जोड़ा है” परमार ने रुमाल में बंधी हुई गड्डियाँ सामने रख दी इससे पहले कि सिंघल बाबू मना करते, उसने दोनों हाथ जोड़ लिए- “बाबूजी, मेरी गलती पहाड़ से भी बड़ी है... और आपकी भलमनसाहत से कभी उऋण तो नहीं हो पाऊंगा पर ये पैसे आप ही कि अमानत हैं, ये तो आपको लेने ही होंगे।“ परमार ने खड़े होते हुए कहा।
“और हाँ बाबूजी, गांधी कॉलोनी में मकान बना किया अब मैंने, एकादशी को गृह प्रवेश है, फीता आप ही काटने आएंगे। और ये कुछ मगद के लड्डू भेजे हैं घरवाली ने.... पंकज बेटे जरूर खाना” परमार ने स्नेह से छलकती आँखों से पंकज को देखते हुए कहा और दरवाजे की ओर बढ़ गया।
(5)

दोपहर से शाम हो गयी थी पर पंकज दोपहर की घटना से अभी तक उबर ना पाया था। ना दुख था ना कोई उत्साह बस एक उदासीनता सी जकड़े हुई थी। बदला लेना और परमार को सजा दिलाना ही उसके जीवन का आधार था... वह आधार उसके कदमों के नीचे से हट गया था और समूचा व्यक्तित्व इस आघात से सुन्न हो गया था।
बाहर कहीं दूर से छन छन कर संगीत ध्वनि आ रही थी “घुँघरू की तरह... बजता ही रहा हूँ मैं...”
पंकज को भास भी नहीं हुआ और उसकी आँखों से बूंद बूंद आँसू गिरने लगे। व्यक्तित्व पर जमा हुआ सारा मल कण-कण कर धुलता जा रहा था। पंकज को एक-एक कर वो सारे क्षण याद आ रहे थे जिनकी उसने हत्या की थी, और वो भी किसलिए? बदले के लिए? अब पंकज का हृदय कलुष मुक्त हो चुका था... ना ही मन आईएएस बनने का जुनून बचा था और ना किसी से बदला लेने की चाह। अब उसका जीवन एक सुगंधित पुष्प हो चुका था जिसे बस वो चुपचाप से निर्माण की वेदी पर रखने जा रहा था**। पंकज उठा और परमार के दिये हुए लड्डूओं में से एक लड्डू उठा लिया जिसकी मिठास उसके अस्तित्व में घुल गयी।





* मगद = बेसन और सूजी को घी में भून कर लड्डू बांधने को तैयार किया हुआ माल।
** यह पंक्ति आचार्य नरेंद्र कोहली के उपन्यास ‘अभ्युदय’ से ग्रहीत है तथा आचार्य के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करने के लिए ली गयी है।
*** पंकज असल में टीचर बनना चाहता था, और अब वो टीचर ही है। पंकज एक छोटे शहर में बच्चों को AIEEE और JEE के लिए Physics पढ़ाता है, एक ऐसे शहर में जहां पढ़ते हुए मेडिकल या इंजीनीयरिंग क्लीयर करने के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। उसके यहाँ के स्टूडेंट्स ने दो बार स्टेट मेडिकल एक्जाम टॉप किया है। 100 से ऊपर स्टूडेंट्स इंजीनीयर बन चुके हैं। लेखक भी पंकज सर का छात्र रह चुका है।

 
Picture Credit: The Disinitegration of the Persistence of Memory, By Salvador Dali, Surrealism (src wikipedia)
 
[Stories of a Seeker are a series of posts by an author who wants to be known as "Seeker". From what we know, Seeker is a genuine and strong individual, who seeks answers to the conundrum of ethics and existence and prefers anonymity and unhindered solitude. Read more at Stories of a Seeker]

 
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Right To Be Wrong: First They Came For...




This poem was first mentioned to me by Dr. Anoop Kumar, Professor at NIT Hamirpur, in one of those numerous conversations that we still continue to have. We were discussing the increasing intolerance of the people and how the definition of enemy, when manufactured to suit ulterior interests of a select few, can be dangerous to the society and civilization in general. And how the escapism of the individuals, who when in face of popular evil, chose to stay a silent witness than a lone and unpopular protester. I hunted the poem down. It written by Martin Niemöller who was a supporter of Hitler's anti-communist Nazi stand until he finally became disillusioned with them. Although late, he raised his voice and was deported to Dachau death camp. He survived and repeated this poem in many versions advocating for the victims of the intolerant and the unjust in different parts of world. Below is one of the popular versions-
First they came for the communists, and I did not speak out—
because I was not a communist;
Then they came for the socialists, and I did not speak out—
because I was not a socialist;
Then they came for the trade unionists, and I did not speak out—
because I was not a trade unionist;
Then they came for the Jews, and I did not speak out—
because I was not a Jew;
Then they came for me—
and there was no one left to speak out for me.
And my translation in Hindi-

सबसे पहले उनके निशाने पे थे साम्यवादी,
मैं खामोश रहा-
क्योंकि मैं साम्यवादी नही था;
फिर उनके निशाने पे थे समाजवादी,
मैं तब भी खामोश रहा-
क्योंकि मैं समाजवादी नही था;
फिर उन्होने श्रमिक संघवाद को अपना शिकार बनाया,
मैं कुछ नही बोला-
क्योंकि मैं किसी श्रमिक संघ में नही था;
फिर उनके हत्थे चढ़े यहूदी,
मैने आवाज़ नही उठाई-
क्योंकि मैं यहूदी नही था;
आख़िरकार एक दिन उनके निशाने पर मैं था-
मेरे लिए आवाज़ उठाने के लिए
कोई बचा ही नही था...

[ Right to be Wrong, as the name suggests are a series of short blogs that argues for the universal Human Rights ] - See more at: Right to be wrong
Picture credits : Wikipedia
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